मंगलवार, 12 जून 2018


कहाँ हो साथी 


ख़ुद से ख़ुद की बात कर ली 
तन्हाइयों में यू 
तकती रही दूर उस सितारे को 
पूछती हूँ इनसे 
कौन हूँ मै ... 
कौन हो तुम ... 
इन सैकड़ो सितारों में 
इक सितारा मेरा भी होगा ... 
कहाँ हो साथी ...!
आओ साथ चले 
सर्द अँधेरा और तन्हाई है 
मेरा वो सितारा कही तो होगा 
ढूंढ ही लुगी तुमको 
रात ढलने से पहले 
चमकना मेरे साथ 
लहकना मेरे साथ 
एक होकर ... 
जैसे भोर का तारा 









शुक्रवार, 1 जून 2018

बदलते मौसम में


                                                          बदलते मौसम में 


आज भी वादियों के पहलू में बैठी थी 
देखती रही थी इनको देर तक 
ये पौधे उनके फूलो को पेड़ो को 
कैसे सूखे जा रहे है सब 
फूल भी नहीं आते, पत्तिया झड़ रही है 
जबकि पतझड़ का ये मौसम तो नहीं 
अभी तो शरद ऋतू की शुरुआत है 
और कैसी तपती धूप है ...
इस ऋतू में तो जैसे 
रुई धुनि सफ़ेद बदलो की 
आवा जाहि हुआ करती है 
और शाम होते ही 
शारदीय हवाएं चलती थी ...
मौसम भी बे वक़्त 
रंग बदलता है, है ना  !
धूप बड़ी तेज़ हो चली थी 
उठ के चलने को हुई 
लगा पैर और कंधे, थके थके से 
फिर लगा छतरी लेकर 
क्यों नहीं निकली थी मै 
फिर सोचने लगी ...
छतरी तो गुम हो गयी थी ना 
अरे नहीं छतरी तो थी ही नहीं  
शायद मेरे पास ...!
पतझड़ में जब पत्ते गिरते है 
तो एक आश रहती है ना ..!
कितना सूखा-सूखा पर 
भीना सा लगता है वो मौसम 
भूरी-भूरी वादी 
हरे-हरे नए-नए कोपलों 
के इंतज़ार में ...
जैसे चाँद के पत्ते गिरेंगे 
और सूरज उगेगा 
पर कई बार 
वादियों से लेकर मन तक 
ऐसे मौसम आते है कि 
चाँद के पत्ते गिरते-गिरते 
गिर जाते है 
पर इन तहो में 
कोई सूरज नहीं उगता ...
इस वीराने में 
अपनी सूखी टहनियाँ ,डाल 
लम्बी शाखाएँ लिए 
खड़ा है पेड़ फिर भी सदियों से 
कि हरे पत्ते लगेंगे 
वो सुनहरा बादल 
गुज़रेगा इधर से 
तब सूरज उगेगा ...