बदलते मौसम में
आज भी वादियों के पहलू में बैठी थी
देखती रही थी इनको देर तक
ये पौधे उनके फूलो को पेड़ो को
कैसे सूखे जा रहे है सब
फूल भी नहीं आते, पत्तिया झड़ रही है
जबकि पतझड़ का ये मौसम तो नहीं
अभी तो शरद ऋतू की शुरुआत है
और कैसी तपती धूप है ...
इस ऋतू में तो जैसे
रुई धुनि सफ़ेद बदलो की
आवा जाहि हुआ करती है
और शाम होते ही
शारदीय हवाएं चलती थी ...
मौसम भी बे वक़्त
रंग बदलता है, है ना !
धूप बड़ी तेज़ हो चली थी
उठ के चलने को हुई
लगा पैर और कंधे, थके थके से
फिर लगा छतरी लेकर
क्यों नहीं निकली थी मै
फिर सोचने लगी ...
छतरी तो गुम हो गयी थी ना
अरे नहीं छतरी तो थी ही नहीं
शायद मेरे पास ...!
पतझड़ में जब पत्ते गिरते है
तो एक आश रहती है ना ..!
कितना सूखा-सूखा पर
भीना सा लगता है वो मौसम
भूरी-भूरी वादी
हरे-हरे नए-नए कोपलों
के इंतज़ार में ...
जैसे चाँद के पत्ते गिरेंगे
और सूरज उगेगा
पर कई बार
वादियों से लेकर मन तक
ऐसे मौसम आते है कि
चाँद के पत्ते गिरते-गिरते
गिर जाते है
पर इन तहो में
कोई सूरज नहीं उगता ...
इस वीराने में
अपनी सूखी टहनियाँ ,डाल
लम्बी शाखाएँ लिए
खड़ा है पेड़ फिर भी सदियों से
कि हरे पत्ते लगेंगे
वो सुनहरा बादल
गुज़रेगा इधर से
तब सूरज उगेगा ...
thanks Hashmi
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