सोमवार, 1 अक्टूबर 2018




बक रहा हूँ 
जुनू में जाने क्या क्या 
कुछ ना समझे 
ख़ुदा करे कोई ... 




कुछ तो है बात 
पर  है क्या ... 
या मुझमे कोई बात ही नहीं  !!
और ज़हन में ऐसे सवाल क्यों है 
जिसका कोई जवाब नहीं ... 
सब कुछ तो है ... 
रोटी ,कपडा ,मकान 
पर तसल्ली क्यों 
फिर भी पास नहीं .... 

      - पुष्पा -
अंग्रेजी अनुवाद :

Something is the matter
But what is...
Or i don't mind!!
And why are there such questions in mind
To which no answer...
Everything is...
Bread, clothes, houses
But why comfort
Still not close....



मंगलवार, 11 सितंबर 2018




Image result for mahadevi verma in hindi



सूनापन
मिल जाता काले अंजन में
सन्ध्या की आँखों का राग,
जब तारे फैला फैलाकर
सूने में गिनता आकाश;
उसकी खोई सी चाहों में
घुट कर मूक हुई आहों में!
झूम झूम कर मतवाली सी
पिये वेदनाओं का प्याला,
प्राणों में रूँधी निश्वासें
आतीं ले मेघों की माला;
उसके रह रह कर रोने में
मिल कर विद्युत के खोने में!
धीरे से सूने आँगन में
फैला जब जातीं हैं रातें,
भर भरकर ठंढी साँसों में
मोती से आँसू की पातें;
उनकी सिहराई कम्पन में
किरणों के प्यासे चुम्बन में!
जाने किस बीते जीवन का
संदेशा दे मंद समीरण,
छू देता अपने पंखों से
मुर्झाये फूलों के लोचन;
उनके फीके मुस्काने में
फिर अलसाकर गिर जाने में!
आँखों की नीरव भिक्षा में
आँसू के मिटते दाग़ों में,
ओठों की हँसती पीड़ा में
आहों के बिखरे त्यागों में;
कन कन में बिखरा है निर्मम!
मेरे मानस का सूनापन!
                                 

शुक्रवार, 7 सितंबर 2018









आते जाते लोग
थमते भागते वक्त 
पर तुम कहां हो 
तुम्ही में उस कस्तूरी की
सुगंध पाई है मैंने 
जैसे तुम मेरे पास भी हो
बहुत दूर भी... 
इस थमते भागते वक्त से
तेरा पता पूछती हूं...

pushpa

मंगलवार, 12 जून 2018


कहाँ हो साथी 


ख़ुद से ख़ुद की बात कर ली 
तन्हाइयों में यू 
तकती रही दूर उस सितारे को 
पूछती हूँ इनसे 
कौन हूँ मै ... 
कौन हो तुम ... 
इन सैकड़ो सितारों में 
इक सितारा मेरा भी होगा ... 
कहाँ हो साथी ...!
आओ साथ चले 
सर्द अँधेरा और तन्हाई है 
मेरा वो सितारा कही तो होगा 
ढूंढ ही लुगी तुमको 
रात ढलने से पहले 
चमकना मेरे साथ 
लहकना मेरे साथ 
एक होकर ... 
जैसे भोर का तारा 









शुक्रवार, 1 जून 2018

बदलते मौसम में


                                                          बदलते मौसम में 


आज भी वादियों के पहलू में बैठी थी 
देखती रही थी इनको देर तक 
ये पौधे उनके फूलो को पेड़ो को 
कैसे सूखे जा रहे है सब 
फूल भी नहीं आते, पत्तिया झड़ रही है 
जबकि पतझड़ का ये मौसम तो नहीं 
अभी तो शरद ऋतू की शुरुआत है 
और कैसी तपती धूप है ...
इस ऋतू में तो जैसे 
रुई धुनि सफ़ेद बदलो की 
आवा जाहि हुआ करती है 
और शाम होते ही 
शारदीय हवाएं चलती थी ...
मौसम भी बे वक़्त 
रंग बदलता है, है ना  !
धूप बड़ी तेज़ हो चली थी 
उठ के चलने को हुई 
लगा पैर और कंधे, थके थके से 
फिर लगा छतरी लेकर 
क्यों नहीं निकली थी मै 
फिर सोचने लगी ...
छतरी तो गुम हो गयी थी ना 
अरे नहीं छतरी तो थी ही नहीं  
शायद मेरे पास ...!
पतझड़ में जब पत्ते गिरते है 
तो एक आश रहती है ना ..!
कितना सूखा-सूखा पर 
भीना सा लगता है वो मौसम 
भूरी-भूरी वादी 
हरे-हरे नए-नए कोपलों 
के इंतज़ार में ...
जैसे चाँद के पत्ते गिरेंगे 
और सूरज उगेगा 
पर कई बार 
वादियों से लेकर मन तक 
ऐसे मौसम आते है कि 
चाँद के पत्ते गिरते-गिरते 
गिर जाते है 
पर इन तहो में 
कोई सूरज नहीं उगता ...
इस वीराने में 
अपनी सूखी टहनियाँ ,डाल 
लम्बी शाखाएँ लिए 
खड़ा है पेड़ फिर भी सदियों से 
कि हरे पत्ते लगेंगे 
वो सुनहरा बादल 
गुज़रेगा इधर से 
तब सूरज उगेगा ...




शनिवार, 31 मार्च 2018


कोशिश 


एक कोशिश है 
अपने भीतर के सच को जीने की 
जब कभी 
ज़िन्दगी से आँख चुराती हूँ 
बड़ी बेचैनी होती है 
कोशिश है 
इसकी आँखों में आँख डाले 
चल सकूँ 
कुछ बनना  शायद बहुत अहम नहीं 
परन्तु अपना होना 
                                                            सही सही समझना चाहती हूँ ... 

रविवार, 25 मार्च 2018

कुछ और लाइने आपके नज़र करती हूँ। ...




गिरहे सुलझाने बैठी हूँ 
ये और उलझ जाती है 
हर कुछ धुंधला धुंधला 
साफ़ नज़र आता है 
बस रुकी रुकी सड़को पर 
वक़्त दौड़ता रहता है 
सदियों से जाने किसे  ढूंढ़ता ये मन 
आज उदास बैठा है ... 
उदासी की गिरहे ,सुलझती  ही नहीं 
शायद ये छोर हो,शायद वो छोर हो 
अब ये मन हताश बैठा है 
आश टूटी  नहीं फिर भी 
सांस  छूटी नहीं फिर भी 
सुलझ ही जाएगी इक दिन 
गांठे पिघल ही जाएगी इक दिन 
मोती पिरोओगी, जिंदगी
तेरे धागो मे उस दिन ... 




रविवार, 18 मार्च 2018

kuch liknae ki kosis ki hai in dino...
     aapkae saamane pesh ker rahi hu ...  


                                         

मन उचाट  सा है ,
वीरानियाँ घिरती जाती है 
ये कैसी तन्हाईयाँ है 
छोटी छोटी खुशिया बिखरी पड़ी है 
चारो ओर...  
इनको छूती हूँ ,खेलती हूँ 
फिर पराया समझ कर 
वही छोड़ आती हूँ 
ये बरसो ,सदियों का 
श्राप टूटता ही नहीं 
मन टूट रहा है... 
पहले भी कई बार टूटा है ,
इसको भी आदत सी हो गयी है 
टूटते रहने की ,
संभलते रहने की 
थक चुकी हूँ ...
खुद को हौसला देते देते 
या शायद यही सच है ,
कमज़ोर हूँ ,मै बहुत कमज़ोर। ...