kuch liknae ki kosis ki hai in dino...
aapkae saamane pesh ker rahi hu ...
मन उचाट सा है ,
वीरानियाँ घिरती जाती है
ये कैसी तन्हाईयाँ है
छोटी छोटी खुशिया बिखरी पड़ी है
चारो ओर...
इनको छूती हूँ ,खेलती हूँ
फिर पराया समझ कर
वही छोड़ आती हूँ
ये बरसो ,सदियों का
श्राप टूटता ही नहीं
मन टूट रहा है...
पहले भी कई बार टूटा है ,
इसको भी आदत सी हो गयी है
टूटते रहने की ,
संभलते रहने की
थक चुकी हूँ ...
खुद को हौसला देते देते
या शायद यही सच है ,
कमज़ोर हूँ ,मै बहुत कमज़ोर। ...
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